इन दिनों हमारे देश में सहिष्णुता के विषय पर घनघोर बहस छिड़ी हुई है। कला, साहित्य, राजनीतिक एवं धार्मिक सभी क्षेत्रों के दिग्गज अपने अपने मत के समर्थन में तर्क कुतर्क देकर अपना पक्ष सिद्ध करने में लगे हैं। कुछ लोग तो इसके लिए पड़ौसी देश पाकिस्तान से सहायता की याचना भी कर चुके हैं और अन्य कुछ देश छोड़ कर अन्यत्र जाने की मंशा जाहिर कर चुके हैं। कुल मिला कर हालात कुछ "गर्दिश में है तक़दीर, भंवर में है सफ़ीना" जैसे हो चले हैं।
इसी बीच समाचार आया है कि हमारी सरकार सहिष्णु बन गयी है। सुनने में तो यह बड़ा अच्छा लगता है, परन्तु इस का दूसरा पक्ष भी है। अर्थात इस से पहले सरकार अ-सहिष्णु थी इस बात को हम ने मान लिया। इसके पहले साधारण जन को केवल "धर्म निरपेक्ष सरकार" के बारे में ही जानकारी थी। आमजन इस का अर्थ यह लगाते थे कि सरकार सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखेगी और किसी के धर्म में अनावश्यक दखलंदाज़ी नहीं करेगी। वैसे भी धर्म और पंथ हर नागरिक का व्यक्तिगत मामला है और सरकार को इसे अछूता रहने देना चाहिए, जब तक यह किसी अन्य व्यक्ति के अधिकार का हनन न करता हो। सरकार को केवल "राज धर्म" का पालन करना चाहिए।
यदि हम धर्म की सरलतम व्याख्या करें तो इसका सीधा अर्थ होता है "कर्तव्य" जैसे गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को "क्षत्रिय धर्म" के पालन का आदेश दिया था। मंदिर, मस्जिद या अन्य पूजास्थल, पूजा अर्चना की विधि आदि विषय "आस्था" के अंतर्गत आते हैं। जैसे किसी देश पर शत्रु का आक्रमण होता है तो उस देश के सभी निवासियों का धर्म देश की रक्षा करना है। इस धर्म के निर्वहन में उनकी आस्था कहीं भी आड़े नहीं आती। हर पिता का धर्म अपनी संतान का उचित पालन पोषण, शिक्षा एवं संस्कार देना है, चाहे वो किसी भी पूजा विधि में आस्था रखता हो। यह सब लिखने का उद्देश्य केवल यह है कि सरकार को अपना राज धर्म और नागरिकों को अपनी आस्था को धर्म से अलग रखते हुए, अपना अपना अपना धर्म ईमानदारी से निभाना चाहिए। इस से देश में एक सुखद प्रेमपूर्ण एवं सहिष्णु वातावरण का उद्भव स्वतः ही होगा। न किसी को अपने सम्मान प्रतीक लौटाने पड़ेंगे और न ही किसी को अपना देश छोड़ कर अन्यत्र जाने के बारे में सोचना होगा।